स्वप्न में कल
उनींदीं आँखों के धुँधले प्रतिबिंब सी
अचानक उतरी आकृति
हाँ, उन्हीं मुक्तिबोध की
गूँजती आवाज सी
तो कुछ लिखते भी हो,
मगर किस पर?
उन्हीं पेड़ों, उन्हीं झरनों,
उसी वक्रमुख चंद्रमा पर
याकि फिर बोलते हो लाल सलाम
धुएँ के हर कश के साथ
करते हो अनुभव
उस गहरी पीड़ा को
जिससे कोसों दूर हो
चलो, लिख लो - कुछ भी
पर क्या सब कुछ लिखने के बाद भी
कर पाए हो महसूस?
स्वयं के अस्तित्व को
सोच पाए हो कभी, कि
क्यों नहीं रुकता
लक्ष्यहीन-उद्देश्यहीन जीवन ?
स्वयं की आत्मविस्मृति को
क्यों ढो रहे हैं लोग ?
मैं सोच में था कि
आकृति धुएँ में मिल गई
एक अकेली अनुत्तरित सी
रह गए बस -
खिड़की से झाँकता मुहल्ले का सूरज
और जिंदगी की कतरनें।